Saturday, August 29, 2009

सत्यकाम के वादे और भजेर..

सुधी पाठक,

जब यह चिठ्ठा शुरू किया था तो दो वादे किये थे मैंने अपने आप से पहला कि रेगुलर पोस्ट करुंगा, दूसरा आपके प्रति पूरी तरह ईमानदार रहूँगा। अब इन वादों को कितना निभा पाता हूं इसका निर्णय तो माई-बाप आप ही करेंगे....

तो शासन की तमाम चेतावनियों के बावजूद मैं पी एच सी पर नहीं रहता, मैं रहता हूँ १३ किमी० दूर कस्बे में जो तहसील का मुख्यालय भी है वजहें कई हैं, कुछ नीचे गिना रहा हूँ:-
१- मौला नगर में बिजली की सप्लाई एकदम अनिश्चित है तीन चार दिनों में एक बार आ जाये तो खुशकिस्मत हैं आप, कभी कभी तो महीनों दर्शन नहीं होते महारानी के...कस्बे में कुल मिलाकर १०-१२ घंटे रोज बिजली मिल जाती है, इन्वर्टर लगाया हुआ है किसी तरह २ घंटे टी वी, एकाध घंटा नेट सर्फिंग और रात सोते समय पंखे की हवा मिल जाती है।
२-पी एच सी पर कोई नर्स नहीं रहती, फार्मेसिस्ट नहीं रहता, बिरजू हरदम लगाये होता है, बिजली होती नहीं और मेरे वहाँ रहने पर हर किस्म के मरीज आते रहते हैं... शादी से पहले जब वहां रहता था तो कई बार ऐसा हुआ कि सारी रात मुझे मरीज के पास ही जगना पड़ा...आप में से जो लोग चिकित्सा के बारे में जानते हैं उन्हें पता होगा कि डॉक्टर का काम होता है रोग का डाइग्नोसिस बनाना और सही इलाज लिखना, इलाज में लिखी दवाओं ,इन्जेक्शनों आदि को समयानुसार मरीज को देना और उसकी स्थिति की लगातार मोनिटरिंग करते हुए जरुरत पड़ने पर डॉक्टर से राय लेना और इलाज में संशोधन करवाना, यह कार्य है नर्स का, इसी लिये उनकी ड्यूटी लगती है शिफ्टों मे...अब ये बातें कौन समझाये ऊपर वालों को जो रोजाना अखबारों में चिल्लाते हैं "गाँवों में रहें डॉक्टर!" अरे आप एक फंक्शनल सेटअप तो बना कर दो, डॉक्टर वहाँ रहने के लिये तैयार हो जायेंगे...भारत के अंटार्कटिक मिशन में हर साल स्वेच्छा से जाते हैं कि नहीं?
३- कोई सुरक्षा का इंतजाम नहीं है, शादी से पहले जब मौला नगर रहता था तो दो बार त्यौहार में घर जाने पर चोरी हो गई ,एक बार तो चोर पूरी झाड़ू मार गये घर में ...चप्पल और तौलिया तक दोबारा खरीदना पड़ा...पुलिस को रिपोर्ट किया तो बोले जिसपे शक हो,बतायें... एक दो बार ऐसा हुआ कि १५-२० लोग आये रात को 'चलिये मरीज देखने गाँव चलिये!' मना करने पर मरने मारने पर उतारू...
४-लेखपाल व पंचायत का सेक्रेटरी जिला मुख्यालय में रहते हैं एक चौकी है गाँव में, मगर पुलिस के सिपाही केवल दोपहर २-३ बजे तक ही रहते हैं फिर कोतवाली जाकर सो जाते हैं... क्या करेगा सत्यकाम अकेला? आदमी आखिर सामाजिक प्राणी है, उसे सोशल इंटरएक्शन भी चाहिये कि नहीं?
५-एक और वजह यह है कि आजकल तो सबको पता है कि दिखाना है तो ९ से २ बजे के बीच जाना है अस्पताल... वरना सुबह ५ बजे पहुंचेगा कोई... आप आंख मलते हुऐ उठेंगे... खींसे निपोरता हुआ वो बोलेगा...खेत में पानी लगाकर आ रहे थे, सोचा दिखाते चलें " शादी में कल ज्यादा खा लिये थे , गैस बन रही है।" या फिर कोई शाम को आपके खाने के टाइम पहुंचेगा... " जरा हाथ देखियो, एक महीने से विकट खुजली हो रही है जनासे में।"

हाँ तो सुबह १३ किमी० आना और शाम को जाना बाईक से करता हूँ, बड़ा अच्छा लगता है हरियाली के बीच रोजाना यह आना जाना...पिछले एक महीने से देख रहा हूँ कि जगह जगह सड़क के किनारे , गाँव के बाहर किसी छायादार जगह पर औरतें, लड़कियां और बच्चे खूब सज धज कर बैठे 'भजेर' कर रहे हैं, यह परंपरा है कि सावन, भादों और क्वार के महीने में महिलायें ९-१० बजे एकसाथ निकलती हैं ,साथ खाना पैक होता है अपना अपना, बच्चे भी साथ होते हैं, गाँव के बाहर किसी छायादार स्थान पर सब बैठते हैं ढोलक की थाप पर देवताओं की स्तुति में भजन गाती हैं, गप शप, हंसी मजाक होता है फिर खाना खाया और घर वापस... एक तरह से संगीतमय धार्मिक पिकनिक....जब तक अपनी मर्जी से 'भजेर' होता है तो मजा आता है परंतु क्या होता है कि कुछ गाँवों में ऐसे कुछ आदमी या औरत होते हैं जिन पर' किसी देवता या देवी की सवारी आती है' (अब चिकित्सा विज्ञान इसे क्या कहता है इसके बारे में बाद में कभी चर्चा करूंगा) तो यह देवता आदेश देते हैं कि अमुक दिशा में इतनी बार 'भजेर' करो, अब उन्होंने चारों दिशाओं में १-२ बार के लिये बोला तो कोई दिक्कत नहीं पर मानो कभी कभी आदेश होता है पूरब में ९ बार ,पश्चिम में ७ बार , उत्तर में ८ बार और दक्षिण में ११ बार....

अब फंस गई ना महिलायें...देवताओं के रुष्ट होने के डर से बेचारी करती तो हैं पर इस मजबूरी के 'भजेर' में वो बात और आनन्द तो नहीं ही आ पाता है।

2 comments:


  1. सच कह रहे हो, दोस्त ! मैं तो इस पँक से मात्र ढाई महीने में ही निकल आया था ।
    एक बार एक श्रृँखला ही इस विषय पर लिख मारी थी ।
    देखना चाहो तो देख लेना !

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  2. चलिए आप रहते तो हैं रुग्णालय में। हमारे ग्राम सभा वाले में तो कुत्ते और जानवर वगैरह रहते हैं। हगने के लिए उतनी सटीक जगह जनता को नहीं मिलती सो हर प्रकार के 'गू' देखने को मिल जाते हैं - मुझे नहीं पता कि 'गू' के आकार प्रकार, गन्ध, टेक्स्चर, परिमाण, रंग आदि की परख मेडिकल साइंस को है कि नहीं ?

    सत्यकाम को एक ढंग का जीवन जीने की कामना तो रहती है है। आप 13 किमी. से आ जा कर ठीक ही कर रहे हैं। वैवाहिक जीवन सुखी रहेगा।

    मरीज तो भाई मरीज हैं। फोकट की सलाह मिले तो जनता ऐसे ही मरीज हो जाती है। सभा, समारोह, बैठकी में कितने ही आप से मुफ्त सलाह पाते होंगे ! मैंने तो ऐसे प्रमाणिक नकलची देखे हैं जो डाक्साब से 'भावी रोग' के बारे में भी सलाह लेते रहते हैं।

    आप का फॉलोवर बन रहा हूँ। लिखते रहिए और मरीजों की नब्ज भी देखते रहिए। अनवरत लिखने के कुछ दिनों बाद आप को नर्स की अनुपस्थिति खलनी बन्द हो जाएगी ।
    ;)

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